Monika garg

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लेखनी कहानी -13-May-2022#नान स्टाप चैलेंज# मां कौन कहेंगा?

पूरे घर में हवन का धुआं फैला हुआ था, अग्नि में जलती हुई हवन सामग्री की सुगंध चारों ओर फैल रही थी। सामने दो तस्वीरों पर हार चढ़ा हुआ था। रतन के लिए यह तस्वीरें प्रश्न की कड़ियों से जुड़ गई थी। एक तस्वीर तो उसके पिता की थी, लेकिन वह साथ में लगी तस्वीर "स्वर्गीय आशा देवी…." यह नाम बार-बार उसकी स्मृतियों को झकझोर रहा था।
ब्रह्म भोज समाप्त होने के बाद सभी परिचित परिवारजन वापस चले गए थे। मालती की आंखों में नींद नहीं थी। रतन से अपनी मां का श्रृंगार विहीन चेहरा देखा ना जाता था। आज मालती सब कुछ हार जाने वाले जुआरी सी दीन हीन दशा में बैठी थी। साथ बैठे रतन को उसके प्रश्न बेचैन कर रहे थे। उसने मालती के कंधों पर हाथ रखा तो आंसुओं से भरी हुई सूनी आंखों से मालती ने उसको देखा और फिर अचानक जैसे कोई बांध भरभरा कर टूट गया। वह रतन से लिपट कर फूट-फूट कर रोने लग गई। रतन की आंखों से भी आंसू बह रहे थे, लेकिन वह एकदम खामोश था। मां बेटे दुख के गहरे सागर में डूबे हुए थे। कुछ देर बाद दर्द का तूफान थमा तो,उसने अपनी मां को उठाकर बिस्तर पर बैठाया और एक गिलास पानी पिलाया।
कुछ देर रतन शांत बैठा रहा, मालती की आंखें दीवारों को घूर रही थी। पूरे घर में एक सन्नाटा छाया हुआ था। रतन के दिमाग में ढेरों प्रश्न तैर रहे थे। अंततः उससे रुका ना गया और वह बोला " मां! यह आशा देवी कौन है ? बचपन में मेरे स्कूल के रजिस्टर में मां के नाम की जगह इनका नाम था। मैंने पूरी ज़िन्दगी इनको देखा नहीं था, फिर अचानक एक चिट्ठी के आने पर आप और पिताजी मथुरा गए वहां से इनकी मृत देह को लेकर यहां आए और कुछ ही घंटों के इनके दुख में पिताजी भी दुनिया से चले गए, मैंने पिता जी के साथ इन्हे भी मुखाग्नि दी !"
रतन मायूसी भरी आवाज़ में बोल रहा था "मां! मैं तो अनाथ हो गया हूं! आखिर कौन हैं यह आशा जी ! जिनके दुख में पिता जी ने ये दुनिया तक छोड़ दी, आपका यह हाल है।
इनका क्या संबंध है हमसे?"

मालती रतन का चेहरा एकटक देख रही थी " मां! बताओ न….. हमारा इन से क्या रिश्ता है! आज से पहले भी रजिस्टर में इनका नाम देखकर , मैं सवाल करता था लेकिन हर बार आपका टाल देती थीं। बचपन में कभी कभी मुझे लगता आप मेरी सौतेली मां हैं। लेकिन आपका प्यार मेरे इस ख्याल को झूठा साबित कर देता था।!"
"मां प्लीज़ आपने हर बार मेरी बात को टाल दिया ,लेकिन आज नहीं आज इस पहेली का जवाब दे दीजिए!"
कुछ पल खामोश रहकर मालती ने धीमे स्वर में बोली " आशा दी मेरे बचपन की सहेली है, मेरे पिताजी उनके घर में एक मुंशी थे। हमारी उम्र में पांच सालों का फासला था। हम दोनों में बहुत प्यार था, हम बहनों की तरह साथ साथ खेलते बड़े हुए थे। समय आने पर आशा दी का विवाह हुआ। उस रोज खुशी से मेरे कदम जमीन पर नहीं थे।बहुत धूमधाम से उनकी शादी हुई थी। उनकी शादी के रोज़, कुंवर सा यानी तुम्हारे पापा, पहले दिन ही मेरे मित्र बन गए थे। उसके बाद  जब कभी आशा दी मायके आतीं तो जैसे घर में उत्सव छा जाता था। कुंवर सा की मोटर में बैठकर सैर सपाटा मेला सिनेमा का कार्यक्रम नित चलता रहता। मेरे लिए तो वे आदर्श दम्पति थे। उनका एक दूसरे के लिए प्यार छलका पड़ता था।
    
आशा दी के आंचल में खुशियां ही खुशियां थी और देखते देखते ही पांच साल बीत गए थे लेकिन वे मां नहीं बन सकी थी। कुंवर सा को इन सब बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता था, लेकिन हमारा समाज या हमारे सगे संबंधी ,अनचाहे ही लोग आशा दी को कोंच कोंच कर उनकी इस कमी का एहसास दिलाने लग गए थे। कुंवर सा आशा दी को लेकर बड़े शहर गए जहां उनका पूरा चेकअप हुआ लेकिन सबकी आशा के विपरीत जब डॉक्टर ने कहा कि आशा दी कभी मां नहीं बन सकती हैं तो उस पल मानो आशा दी के जिंदगी को ग्रहण लग गया ।
कुंवर सा उनसे बहुत प्रेम करते थे उनका सीधा कहना था कोई बात नहीं हम बच्चे को गोद ले लेंगे, लेकिन आशा दी की जिंदगी बेरंग हो गई थी। मां न बन पाना उनके स्त्रियत्व को चुनौती दे रहा था।उनके लिए मां न बन पाना अधूरेपन की निशानी था। वह अपने सबसे प्रिय रिश्ते को एक संतान का उपहार तक ना दे सकीं, यह बात उनको भीतर ही भीतर खाने लग गई थी।
दबी जबान से आशा दी की ससुराल में दूसरे विवाह की बातें होने लग गई थी, इसके लिए कुंवर सा कतई तैयार नहीं थे। अपने अधूरेपन को खत्म करने के लिए आशा दी ने ज़िद पकड़ ली कुंवर सा को दूसरी शादी करनी ही पड़ेगी।

एक रोज़ अचानक आशा दी आईं उन्होने जाने क्या सोचकर कि यह प्रस्ताव मेरे सामने रखा। मालती ने रतन के चेहरे की ओर देखते हुए बोली "तुम जानते हो रतन! उस समय वह अपना आंचल फैलाए मेरे सामने खड़ीं थीं, उनका केवल एक वाक्य था "मालती! तू मेरे बच्चे की मां बन जा……! उनकी बातों में एक बेबस मां की पुकार थी। एक ऐसी औरत जो किसी भी सूरत में मां बनना चाहती थी। एक संतान के लिए वह अपने रिश्ते को दांव पर लगाने के तैयार थीं। मैं उनसे इतना प्यार करती थी कि उनकी उस गुहार को टाल न सकी और फिर उनकी ज़िद पर मेरी शादी तेरे पापा से हो गई!"

मालती कुछ पल खामोश रही फिर धीमी आवाज़ मे दोबारा बोली " मेरी सुहागरात के रोज आशा दी ने तेरे पापा के सर पर हाथ रखकर कसम खाई"
वह मेरी ओर देखते हुए बोली "मालती! आज से मैं तेरे कुंवर सा से अपने साथ सभी अधिकार वापस लेती हूं। उनका मुझ पर कोई अधिकार ना होगा, यदि वो यह कसम तोड़ेंगे तो मेरा मरा मुंह देखेंगे। इस घर में मैं केवल अपनी संतान को देखने आऊंगी!"
इतना बोल कर आशा दी कमरे से बाहर चली गई और अगले रोज अपने मायके लौट गई मेरे लिए भी यह सब आसान नहीं था। अपने मित्र को पति के रूप में देखना मेरे लिए भी संभव ना था। कुंवर सा के प्राण आशा दी में बसते हैं….यह जानते हुए भी उनके नजदीक जाना मुझे एक पाप सा लगता था। वहीं आशा दी की वो बेबस पुकार मुझे सोने नहीं देती हर समय एक बेचैनी सी घेरे रहती थी।
"रतन जानता है…. समय हर रिश्ते को किसी न किसी तरह एक सही दिशा में मोड़ ही देता है। साल भर बाद तेरे आने की आहट मैंने अपने शरीर में महसूस की तो लगा आशा दी की तपस्या का फल मुझे मिल रहा है। ज्यों ज्यों मेरे शरीर में तू आकार ले रहा था आशा दी के सपनों में रंग भरने लगे थे। जचगी का समय आने पर आशा दी घर वापस आईं।
हम सबके लिए तू अनमोल था। हम तीनों ने तुझे पाने के लिए बहुत बड़ी कीमत चुकाई थी इसीलिए कुंवर सा ने तेरा नाम रतन रखा था।
तेरे जन्म का उत्सव धूमधाम से मनाया गया। आशा दी पूरी रात जागते हुए पालने के पास बैठी थी। वे बार-बार कहतीं " रतन….मेरा बेटा…मेरा लाल रतन….!

वे बार-बार तेरी बलैया लेती। मुझे देखकर कहती "मालती तूने मेरे सर से कलंक मिटा दिया है। उनकी आंखों में ममता का गहरा सागर लहरा रहा था। तेरे जन्म के बाद वो तीन दिन इस घर में रही लेकिन इस बीच वो एक बार भी कुंवर सा से नहीं मिली।उनसे एक शब्द न बोलीं।
हर पल तुझे गोद में लिए रहतीं और फिर एक सुबह हमें बिना बताएं चली गई । किसी ऐसी जगह जिसका कोई पता नहीं जानता था। कुंवर सा ने तुरंत आदमी भेजे लेकिन उनका पता नहीं लग रहा था।हम सब परेशान थे। कुंवर सा की भूख प्यास मिट गई थी।
उन्हे खोजने की हर कोशिश हो रही थी।
कुछ दिनों बाद आशा दी की एक चिट्ठी मिली। उन्होंने लिखा था
" मालती!
हो सके तो मुझे माफ कर देना।एक मां का अधिकार मैं नहीं छीन सकती। मेरे बेटे रतन को तू मेरे हिस्से का भी प्यार देना। ये तीन दिन तेरे कुंवर सा से दूर बड़ी मुश्किल से काटे। मैं डरती हूं कहीं मेरा मन बेईमान ना हो जाए या कभी कुंवर सा अपनी कसम तोड़ दें इसलिए बेहतर है मैं तुम्हारी दुनिया से चली जाऊं।
तेरी आशा दी!
"उस चिट्ठी के बाद फिर कभी उनकी कोई खबर नहीं मिली। करीब दस रोज पहले मथुरा के आश्रम से चिट्ठी आई, शायद उन्हें अंदेशा हो गया था कि उनकी जिंदगी अब खत्म होने को है। हम दोनों वहां गए थे आशा दी ने कुंवर सा की गोद में अंतिम सांस ली। हम दोनों  उन्हें यहां लेकर आए। आखिर मां को मुखाग्नि बेटा ही देता है!"

रतन जानता है तू तेरे पैदा होने के बाद कुंवर सा ने कभी मुझ पर पत्नी का अधिकार नहीं जताया। तुझको पाने के बाद वह दूर बैठी आशा दी की प्रतीक्षा करते रहे। उनका प्रेम अलौकिक था। मेरे साथ गृहस्थी में रहकर भी वह महज़ तेरे पिता बन कर रहे। तुझे भरपूर प्यार दिया। मुझे हर सुविधा दी। मैंने तेरा पालन पोषण एक अमानत की तरह किया। दुनिया को लगेगा कि उन्होने मुझ पर अन्याय किया लेकिन ऐसा नहीं है, बेटा तेरी मां आशा दीदी थी। मैंने महज़ तुझे जन्म दिया था। तू उनका ही बेटा है ।
आखिर कुंवर सा जैसा पति,जो आजीवन मेरे मित्र बनकर रहे। यह रहन-सहन तेरे जैसा बेटा आशा दी की बदौलत ही मिला था। उनकी एक इच्छा थी उनका एक बेटा हो, वह उसकी मां कहलाएं….. उनकी एकमात्र इच्छा को मैं कैसे ना पूरा करती। इसीलिए हर रजिस्टर में मां के नाम की जगह आशा दी का नाम है। आशा दी की मृत्यु के साथ ही कुंवर सा की प्रतीक्षा भी समाप्त हो गई थी और वो उन्ही के पीछे चले गए।
रतन यह सब बातें खामोशी से सुनता रहा, कहने को यह उसकी मां का अतीत था लेकिन एक उसकी जिंदगी के लिए तीन लोगों ने अपनी जिंदगी होम कर दी थी। उसे बेशुमार प्यार मिला, आशा दी की बेशुमार दुआएं मिलीं, शायद उन दो औरतों की ममता ने रतन पर एक कर्ज चढ़ा दिया था जिसे शायद वो कभी उतार नहीं  सकता था।

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3 Comments

shahil khan

06-Apr-2023 09:58 PM

nice

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Vedshree

06-Apr-2023 08:08 AM

Very nice

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